“ख़ामोशी-ए-दीयों की रौशनी”
“ ख़ामोशी - ए - दीयों की रौशनी ” ( — एक आत्मिक ग़ज़ल — उजाले के भीतर का अंधेरा — ) इस कविता के द्वारा कवी अपनी सोच को व्यक्त करते हुए ये कहना चाहता है की , ज़िंदगी की असली रौशनी सिर्फ़ बाहर की जगमगाहट में नहीं , बल्कि हमारे भीतर की ख़ामोशी और भावनाओं में छिपी होती है। त्योहार और खुशियाँ सिर्फ़ बहाना हैं ; अगर दिल में अँधेरा हो तो कोई रोशनी महसूस नहीं होती। कवी कहना चाहता है की असली उजाला वही है जो भीतर से जले — जो हमें खुद से रोशन करे। हर तरफ़ रौशनी है मगर दिल में अँधेरा है , ये दीवाली भी अब बस इक तसव्वुर का सवेरा है। मुस्कुराते हैं लोग , पर थक चुके हैं भीतर से , हर खुशी के नीचे बिखरा कोई लम्हा अधूरा है। वक़्त ने सिखाया — उजाला भी झूठा है , हर दीया अपने धुएँ में ही घिरा है। रौशन घरों में साये हैं , चेहरों पे नक़ाब , हर मुस्कान के पीछे कोई ग़म गहरा है। हँसी की गूंज थी इन दिवारों में कभी , अब तो हर सा...