“नास्तिक का मन”
“नास्तिक का मन”
— एक खामोश बेचैन आवाज़ —
इस कविता के जरिए कवि यह कहना चाहता है कि इंसान की असली पूजा मंदिर या मूर्ति में नहीं, बल्कि जिंदगी के रिश्तों, दर्द को समझने और इंसानियत को अपनाने में छुपी है। ये जज़्बात विश्वास या धर्म के बाहर भी एक गहरी आध्यात्मिक अनुभूति देते हैं, और एक थके-हारे दिल की आवाज़ हैं जो धर्म के दिखावे से थककर सच और इंसान के प्यार में सुकून ढूंढ़ती है। कवि दिखाता है कि नास्तिकपन भी एक तरह की इबादत हो सकती है — जहां भगवान से ऊपर बस इंसानियत का हाथ पकड़ना ही असली भक्ति है। यह कविता उनके लिए है जो मंदिर से दूर होते हुए भी माँ-बाप के प्यार और अपनी अंदर की आवाज़ में जीने की हिम्मत को सबसे बड़ी आस्था मानते हैं।
जिंदगी के उस मोड़ पर खड़ा हूं,
जहां ईमान के चिराग भी बुझ जाते हैं,
और खुदा के डर से गूंजती आवाज़ें भी
सिर्फ एकांत की खामोशी में ढल जाती हैं।
मैं नास्तिक हूं —
पर इस नास्तिकता के पीछे एक थका इंसान है,
जो मज़हब के पिंजरे में नहीं,
अपनी तन्हाइयों के क़ैद में बसा है।
मैं जैन तो हूं —
पर मेरे अंदर की शंका
हर मंदिर के शंख को
मौन बना देती है।
मुझे मजबूर न करो, कि मैं पत्थर की मूर्तियों के सामने
सर झुका दूं —
मेरा विश्वास न घंटों में दबता है,
न शोर में ज़िंदा रहता है।
मुझे नवरात्रि के रंग बिरंगे मेले,
सिर्फ एक नाटक लगते हैं—
जहां भक्ति, व्यापार के पर्दे तले
अपना चेहरा खो बैठी है।
धूप-दीप, रंगों की भक्ति, और देवी के गुनगान—
सब मेरे लिए सिर्फ गुजरने वाली ध्वनी,
जैसे हवा छू कर लौट जाती है,
पर खिड़कियां कभी खुलती नहीं है।
नवरात्रि के झंकार मुझे,
सिर्फ एक "बाज़ार" लगते हैं —
जहां देवी की मूर्तियों से ज्यादा
नोटों की आरती होती है।
जहां श्रद्धा और भक्ति, व्यापार के थैले में बंद
एक दुकानदारी बन गई है।
मैं देख रहा हूं—
लोगों के चेहरे पर आस्था का रंग,
पर मेरी आँखों में वो रंग फीका है,
मेरा सर, किसी मूर्ति के सामने अब झुकता नहीं,
मेरी प्रार्थना, किसी देवता के चरणों में गिरती नहीं।
मेरे लिए कोई देवी नहीं, कोई देवता नहीं,
सिर्फ यादों का एक धोखा है,
जहां हार-फूल बारिश में घुल जाते हैं,
और मूर्तियां मिट्टी बन जाती हैं।
मैं देवताओं को नहीं मानता,
पर मैं उस संवेदना को मानता हूं
जो रोती हुई माँ की पलकों से गिरती है,
और उस श्रम को मानता हूं
जो पिता के खामोश हाथों से टपकता है।
तुम पूजते हो देवी-देवताओं को,
मैं पूजता हूं अपनी सोच और उस दर्द को
जो मुझे इस भीड़ में अकेला छोड़ देता है।
मैं नास्तिक हूं —
यह कहने की हिम्मत भी शायद तुम में नहीं होगी!
मैं नास्तिक हूं!
पर मेरा नास्तिकपन खुद में भी एक इबादत है,
जहां मैं माँ-बाप के प्यार को
सबसे बड़ा मंदिर मानता हूं।
मेरे लिए उनकी आँखों के आँसू
गीता, कुरान और आगमों से
कहीं ज्यादा पवित्र हैं।
मुझे न मंदिर के घंटों से सच सुनाई देता है,
न देवताओं के नाम पे चढ़ाये फूलों से सुकून मिलता है।
मुझे लगता है कि —
हर प्रतिमा, सिर्फ एक पत्थर है,
और हर ग्रंथ, एक डरपोक कलम का समझौता।
मेरा "जैन" होना सिर्फ एक कागज़ी पहचान है,
एक जन्म की परिभाषा है —
लेकिन मेरा जीवन?
वह सिर्फ सवालों का समुद्र है,
जिसमें मुझे खुदा की नहीं,
बस एक सच की तलाश है।
रात के सीने में, एक दर्द भरी दुआ उभरती है,
मैं नास्तिक हूं; और मेरी रूह खुद से ही लड़ती है।
ना देवी, ना देवता, ना मंदिर की घंटी का साज़ है,
सिर्फ खामोशी का शोर और नास्तिकता का जज़्बा-ए-नाज़ है।
जिंदगी के सफर में, हर मोड़ एक क़ैदखाना लगता है,
जहां धर्म के जंजीर, इंसान को सिर्फ रुलाता है।
षड़यंत्र के साये में, रूह अपना साया ढूंढ़ती है,
पर हर आईना मुझे खुद की सूरत दिखाता है।
नवरात्रि का रंगीन समां, क्या मायने रखता है?
जब दिल के अंदर बस उदासी का फसाना है।
फूल मुरझा जाते, दीये बुझ जाते, मन्नतें टूट जाती,
और इंसान खुदा की तलाश में खुद को खो देता है।
“Time heals all wounds” — कहने वाले कितने बेवकूफ थे,
ज़ख्म वक्त के साथ गहरे होते गए, मरहम कभी मिले ही ना थे।
यादों का बोझ एक लाश बन कर कंधे पे रखा है,
और हँसी एक नकाब है, जो दर्द को छुपाता है।
मैं नास्तिक हूं, पर दिल अब भी इंसान है,
मेरी रूह को सुकून न मंदिर न मस्जिद, सिर्फ खुद की तलाश है।
शायद इसी में है खुदा का राज़ —
कि ना उसका वजूद, ना उसकी अदा,
सिर्फ यादों का पिंजरा, और ग़म की सदा।
और ये ग़म? ये अमर है —
जैसे रातें चाँद के बिना,
जैसे खामोशी आवाज़ के बिना,
जैसे मोहब्बत याद के बिना।
और जब दुनिया मुझसे पूछती है —
“तू भगवान को क्यों नहीं मानता?”
तो मैं सिर्फ इतना कहता हूं:
खुदा से बड़ा,
मंदिर से ऊपर,
देवी-देवताओं से आगे —
इंसानियत का हाथ पकड़ना ही,
मेरा असली धर्म है।
मैं नास्तिक हूं —
यह मेरी शान है, मेरा जुर्म नहीं।
हार्दिक लिख रहा हैं एक कविता —
ना स्वर्ग के लिए, ना मोक्ष के लिए,
पर उन सभी नास्तिकों के लिए
जो खुदा को खो चुके हैं,
मगर इंसानियत को अब भी
अपना एकलौता भगवान मानते हैं।
“हार्दिक लिखता है अपनी जीवन की कहानी,
ना आस्था, न पूजा — बस कलम और कविता ही है उसकी असली सारथी।”
“मैं हूं, और मैं सोचता हूं।
इसलिए मैं नास्तिक हूं।।”
– हार्दिक जैन। ©
इंदौर (मध्यप्रदेश)
Writco ©
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