“नास्तिक के भीतर का उजाला”

 नास्तिक के भीतर का उजाला

( — एक आत्मिक विलापयक़ीन के बिना भी रूह की दीवाली — )



इस कविता के द्वारा कवि अपनी सोच को व्यक्त करते हुए ये कहना चाहता है किनास्तिकतासिर्फ़ ईश्वर के इंकार की भावना नहीं, बल्कि भीतर का वो मौन संघर्ष है जहाँ इंसान तर्क और भावनाओं के बीच झूलता है। ये कविता बताती है कि कभी-कभी माँ-बाप का प्यार ही वो ख़ुदा बन जाता है, जिसे नास्तिक भी झुककर महसूस करता है। यह कविताउस नास्तिक के लिए जो हर त्यौहार पर अपनी तर्क की दीवारों के पार भावनाओं के समुंदर में डूब जाता है। जहाँविश्वासऔरमोहब्बतएक-दूसरे से अलग नहींबल्कि एक ही दीपक की दो टिमटिमाती लौ हैं।

 

बड़ी कच्ची नींव है मेरे यक़ीन की,

हर बार हिल जाती हैदीपों की चपेट में।

मैंने ख़ुदा से किनारा किया था कभी,

पर माँ की दुआ उतरती हैआँखों की गहराई में।

 

आज फिर दीए जलेमगर रूह बुझी सी लगी,

हर चमक के पीछे कोई ख़ामोश सी कमी लगी।

मैंने सोचा था, खुदा से रिश्ता तोड़ आया हूँ,

पर माँ की दुआ ने फिर पुकार लिया कहीं।

 

कभी मैं भी जलता थादीपों की तरह,

अब बस धुआँ हूँख़ुद अपने भीतर।

ना ख़ुदा का यक़ीन, ना इनकार का सबब,

बस एक ख़ामोश तन्हाईमेरा मुक़द्दर।

 

रौशनियाँ घर में उतरीं, पर दिल अंधेरों में डूबा रहा,

हर हंसी के पीछे कोई टूटा साया रूठा रहा।

फिर वही आरती की थाल, फिर वही धूप की महक,

पर इस बार आस्था नहीं... बस अपनापन बरसता रहा।

 

त्योहारों की ये रौनकें, ये जगमग शहर,

किसी और के लिए इबादतमेरे लिए ज़हर।

हर दीए में माँ की उम्मीद झिलमिलाती है,

हर आरती में पिता की दुआ समाती है।

 

मैं जोनास्तिकहूँया कह लो, थक चुका हूँ,

इबादत से नहींबस सवालों से डर चुका हूँ।

क्योंकि हर रौशनी मुझे मेरे अँधेरों की याद दिलाती है,

हरजय-घोषमें मेरी ख़ामोशी गूंज उठती है।

 

कभी लगता हूँ पक्का पत्थर,

तो कभी मोम-सा पिघल जाता हूँ।

जब माँ मुस्कुरा के दीया जलाती है,

तो अपनी नास्तिकता को ख़ुद ही दफ़ना आता हूँ।

 

मुझे नहीं चाहिए स्वर्ग का वादा,

ना किसी मंदिर की सीढ़ियों का सहारा,

पर जब पिता आरती के दीप थमाते हैं हाथों में

तो मैं भीग जाता हूँ उस सन्नाटे के किनारा।

 

ये पूजा नहींशायद मोहब्बत का रिवाज़ है,

जहाँ धूप में जलते रिश्ते थोड़ी छाँव माँगते हैं।

और मैंजो खुद कोबे-ख़ुदाकहता फिरता हूँ,

उन रिश्तों के आगेहर दफ़ा हार जाता हूँ।

 

कभी लगता हैईमान का कोई नुक़्सान नहीं हुआ,

बस दिल से किसी रब का मकान नहीं हुआ।

और जब दीप जलते हैं चौखट पर माँ के हाथों से,

तो लगता है, शायद वहीं कहीं मैं फिर सेइंसानहुआ।

 

कहते हैंबड़ी कच्ची नींव है नास्तिकों की,

हाँ, मैं भी हिल जाता हूँ त्योहारों की चपेट से,

क्योंकि मेरी नास्तिकता किताबों में सख़्त सही,

पर दिल में पिघल जाती हैमाँ के एक स्पर्श से।

 

ये ज़िंदगी भी अजीब इबादतगाह है,

जहाँ हर दर्द आरती, और हर ख़ामोशी गवाह है।

ख़ुदा हो या होमगर यादें हैं, एहसास हैं,

और इन्हीं में शायद मेरी सबसे सच्चीआस्थादबी है।

 

हम चाहे जितना कहें — “ख़ुदा नहीं है,

पर सच्चाई ये है कि

माँ की मुस्कान, पिता की आँखें में,

वही तो छिपा है

जिसे हम नकारते हैं, और वही हमें थामे रहता है।

 

ना मैं ईमान वाला, ना बेज़बान कोई,

बस अपने भीतर दो दुनिया लिए इंसान कोई।

नास्तिक हूँ मैंपर जब माँ के हाथों दीया जलता है,

तो लगता हैख़ुदा मेरे ही सीने में धड़कता है कहीं।

 

विश्वास बचा, इंकार पूरी तरह,

बस एक धीमा उजालाजो दोनों से परे है।

वही उजालामेरे भीतर का उत्सव भी है,

और मेरी नास्तिकता का शोक भी।

 

ना मैं श्रद्धालु, ना मैं विद्रोही,

बस एक थका हुआ दिलजो सब्र में डूबा राही।

दीयों की रौशनी में अपना अक्स ढूँढता हूँ मैं,

नास्तिकहूँ, मगर हर दीप में

माँ-बाप की मोहब्बत का ख़ुदा देखता हूँ मैं।

 

हार्दिक ! ज़िंदगी ने सिखायाख़ुदा भी खामोश रहता है,

जब दिल रोता है, तो दीया भी रूह के साथ बुझ जाता है।

 

हार्दिक जैन। ©
 
इंदौर।। मध्यप्रदेश।।

 

 

कठिन शब्दों के अर्थ -

 

1. मुक़द्दर        - किस्मत।

2. ईमान          - विश्वास।

3. इबादतगाह   - पूजा स्थल/ मंदिर।

4. रिवायत       - परंपरा।

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