“ग़ज़ल - ए - ग़ुमनाम सफ़र
इस कविता के द्वारा कवी अपनी सोच को व्यक्त करते हुए ये कहना चाहता है की
ज़िंदगी का सफ़र कितना अकेला और उदास हो सकता है। कभी जो लोग, रिश्ते और सहारे अपने लगते थे, वक़्त की धूल में गुम
हो जाते हैं। इंसान चलते-चलते ना सिर्फ़ अपनों को खोता है बल्कि खुद का चेहरा और
अपने ही सपने भी कहीं खो देता है। यही दर्द और तन्हाई उसकी पहचान और उसकी ग़ज़ल बन
जाती है। ये कविता ग़म की उस शिद्दत का एहसास दिलाती है, जो
एक तरफ़ रुलाती है, तो दूसरी तरफ़ उसी ग़म को जीना हमारी
मजबूरी और पहचान और हमारे जीने का असली मतलब बना देती है।
वो मंज़िलें भी खो गईं, वो राहगुज़र भी खो गए,
हम जिस तरफ़ चले थे,
वहाँ के दर भी खो गए।
जो दोस्त बन के साथ थे, हमनवा कभी हमारे,
ग़ुरबत के इन सफ़रों में, वो हमसफ़र भी खो गए।
साये थे जो दोस्त हमारे, रूठकर बने अजनबी,
ज़िंदगी के क़ाफ़िलों में, हम तो जहां भी खो
गए।
ये जो लौट गए सभी, ये जो बिखर गया नाता,
मेरा अपना ही चेहरा आईने में कहीं खो
गया।
ना चाँद था,
ना चाँदनी, अंधेरों
का ही आलम था,
सितारे छुप गए सभी,
वो नज़ारे भी खो गए।
हवाओं से जंग हारकर, चिराग़ थककर बुझ गए,
लिखी थी किस्मत ने राहें,
पर इम्तिहान भी खो गए।
नसीब करवटें बदलते,
ग़मों की छाँव गहरी थी,
दुआएँ थम सी गईं सभी,
वो असर भी खो गए।
जो जवाँ थे ख़्वाब दिल में, वो अरमाँ सब बिखर
गए,
ज़ख़्म भरते नहीं कभी, वो निशान भी अब खो गए।
कभी जिन राहों पे चला था मैं अभिमान से,
आज उसी मोड़ पे सारे सहारे खो गए।
कोई मंज़िल नहीं रही, बस सन्नाटा ही है हमक़दम,
चलते-चलते सफ़र के सब मकसद ही खो गए।
ये रास्ते भी पूछते हैं, रुके हो किस तमन्ना में,
मुक़द्दर ही बदल गया,
वो रहबर भी खो गए।
चलो अब तुम भी चल पड़ो, कहाँ तलाश में रहोगे,
वो मेहरबान भी गए,
और हौंसले भी खो गए।
किरणों का वादा लेकर जो सवेरा आया था,
दोपहर की धूप में वो उजाले खो गए।
‘हार्दिक’ दिल की ख़ामोशी अब ग़ज़ल बन के बोल
उठी,
लफ़्ज़ तो बाकी रह गए, पर फ़साने फिर भी खो गए।
‘हार्दिक’ अब लगता है जीवन बस एक रिवायत बनकर रह गया,
वो अर्थ, वो जज़्बा सब कुछ तो किसी मोड़ पर ही खो गया।
– हार्दिक जैन। ©
इंदौर ।। मध्यप्रदेश
।।
कठिन शब्दों के अर्थ -
1. राहगुज़र - रास्ता।
2. ग़ुरबत - तन्हाई।
3. आलम - माहौल।
4. मुक़द्दर - किस्मत।
5. रहबर – साथी / मार्गदर्शक।
6. रिवायत - परंपरा।
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