“इबादत का अंत”

 इबादत का अंत

( एक रूह का सफ़रख़ुदा से ख़ुद तक )

 

इस कविता के द्वारा कवि अपनी सोच को व्यक्त करते हुए ये कहना चाहता है कि ज़िंदगी के हर दर्द, सवाल और बेबसी के बीच इंसान एक दिन उस ख़ुदा से जवाब मांगता है जिसने उसकी तक़दीर लिखी — मगर बदले में उसे सिर्फ़ ख़ामोशी मिलती है। कवी प्रश्न करता है कि जब सब कुछ पहले से लिखा है, तो हमें सज़ा और हिसाब क्यों देना पड़ता है? जब बार-बार यक़ीन टूटता है, तो उसे एहसास होता है कि असली रब बाहर नहीं, बल्कि उसके अपने अंदर बसता है — उसके कर्मों, उसके दर्द और उसकी लिखावट में। यह कविता उस पल का मातम है जब भरोसे की जगह तजुर्बा ले लेता है, और इंसान आस्था से आगे बढ़कर खुद अपनी आत्मा, अपनी सोच और अपनी सच्चाई में ही अपना भगवान खोज लेता है। असली आज़ादी उसे तब मिलती है जब वह भगवान के होने या न होने के सवाल से ऊपर उठकर, अपनी ज़िंदगी को अपने हिसाब से जीना सीख लेता है।

 

वो पहले लिखता तक़दीर, फिर इम्तिहाँ लेता है,

ये कैसा रब है जो अपनी लिखावट का हिसाब लेता है।

क़लम भी उसकी, स्याही भी उसके फ़रमान की,

पर हर ख़ता का बोझये इन्सान उठाता है।

 

वो जो लिखता है पहले, वही तो फ़साना हमारा,

हँसी की तह में छिपा, पुराना दर्द हमारा।

हर एक लकीर में उसकी मर्ज़ी का है इशारा,

फिर क्यों पूछता है वोहिसाब--कर्म हमारा?

 

पहले तूने लिखी किस्मतकहा, यही मुक़द्दर है तेरा,

फिर पूछाक्यों गुनाहों से ही रंगा है ये चेहरा तेरा?

सोचा था, तू होगा कहींपर यक़ीन टूट गया,

तेरे वजूद का सबूत तेरी ख़ामोशी ने लूट लिया।

 

हर अश्क तेरे नाम किया, हर दुआ में तू ही था,

अब जानावहाँ कोई सुनता ही नहीं था।

अब समझातू कभी था ही नहीं,

सिर्फ़ मेरी ज़रूरत ने तेरा वजूद तराशा था।

 

तेरी किताब में लिखा थासब तेरे हुक्म से होता है,

तो फिर क्यों मेरा दिल तेरे जिक्र से काँपता है?

वक़्त की रवानी में खो गए कई मौसम,

हर लम्हा एक नयी रौशनी बुझाता है।

दिल में यक़ीन थातू कभी रहमदिल होगा,

पर तू भी अब शिकायतों से नज़र चुराता है।

 

ख़ुदा, तेरी मस्ती भी क्या हद से गुज़र गई,

हमसे कर्मों का माँगे हिसाब, और कलम तेरे हाथों की निकली।

तूने लिखा था ग़महमने जिया उसे सज़ा समझकर,

अब पूछता है — “क्यों रूठा है?”, हाय!, तेरी चाल भी निराली निकली।

 

तूने कहासब्र रख, इनाम मिलेगा,

ख़ुदा! मगर थक गया मैं तेरे इन्तज़ार में।

अब तेरी जन्नत की आरज़ू भी नहीं रही,

मेरी नफ़रत ही मेरा मुक़द्दर है,

और मेरा जहन्नुममेरी सच्चाई है।

 

ज़िन्दगी का सफ़रअजीब तन्हा मंज़िल निकला,

हर ख़ुशी किसी ग़म का पैग़ाम बनकर आई।

वक़्तये ख़ामोश बेवफ़ा मेरा क़ातिल निकला,

हर ज़ख़्म पे मुस्कुरायाजैसे तेरी लिखी कहानी दोहराई।

 

ज़िंदगीएक दरिया है, मगर किनारा नहीं मिलता,

हर चाह में डूबा हूँ, कोई सहारा नहीं मिलता।

वो लिखता गया मेरी तक़दीरस्याही से बे-रंग,

और कह गया — “इस दर्द का इकरार नहीं मिलता।

 

हमने सोचा थादर्द भी किसी दिन थम जाएगा,

मगर वो तो तेरी तर्ज़ का हिस्सा निकला।

हर आँसू में तूने एक हँसी छिपा दी,

मगर हर हँसी मेंतन्हाई का सिलसिला निकला।

 

हम तेरे इशारों पर चलेतोहमत यही पाई,

कभी रहमत, कभी सज़ा की सौगात लिख दी।

तू रब है, मगर इंसान के ज़र्रे को आज़माता रहा,

कभी सब्र लिखा, कभी शिकायत की रात लिख दी।

 

अब शिकवा है, कोई सवाल बाकी रहा,

तेरी अदालत मेंखामोश गवाह बन गए हैं हम।

जो लिखा हैवो जी लिया हमने भी मुस्कुराकर

क़िस्मत की इस रंगमंच पे, बस एक किरदार बनके रह गए हैं हम।

 

अब तू नहीं यहाँमेरे लिए सिर्फ़ मैं हूँ

मेरे कर्म, मेरी तन्हाई, मेरी सोच का ख़ुदा हूँ।

कोई फ़रिश्ता गवाह, दोज़ख़ का कोई डर है,

अब मैं ही अपने गुनाहों का हिसाब रखता हूँ।


तेरी मस्ती को सलामतूने मुझे तोड़ा,

पर उसी टूटन से मैंने ख़ुदी को पा लिया।

अब तू चाहे तो मिटा दे मेरा नाम इस जहाँ से,

मैंने तेरे होने की ज़रूरत को ही मिटा दिया।

 

अब जब कोई कहता हैख़ुदा है कहीं,

मैं बस होंठों पे ख़ामोश मुस्कान रख देता हूँ।

क्योंकि ये लफ़्ज़ अब दिल को नहीं छूते कहीं।

जो मिला उजालों की गिरफ़्त में उम्रभर,

अँधेरों में उसे ढूँढनाअब गुनाह समझता हूँ।

 

मैं खोजता हूँ मंज़िल उस आसमान में,

डरता हूँ क़िस्मत के फ़ैसलों की स्याही से।

ख़ुदा के होने या होने की बहस अब बेकार है,

मेरी दुनियामेरा तजुर्बाउसके बग़ैर मुक़म्मल है।

 

तेरा वजूद या अदमअब यकसाँ है मेरे लिए,

क्योंकि मेरी इबादत अब मेरी तहरीर बन चुकी है।

 

हार्दिक जैन©
 
इंदौर ।। मध्यप्रदेश ।।

 

 

कठिन शब्दों के अर्थ -

 

1. इकरार – स्वीकार करना।

2. तर्ज़ – तरीका।

3. रवानी – बहाव।

4. तोहमत – इल्ज़ाम या आरोप।

5. ज़र्रे – छोटा कण।

6. दोज़ख़ – नरक।

7. ख़ुदी – स्वयं।

8. मुक़म्मल – सम्पूर्ण।

9. अदम – न होना।

10. यकसाँ – बराबर।

11. तहरीर – लिखावट/लेख/रचना।

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